मेरा सफर
मेरा सफर
गुमनामी की चादर ओढ़े
घूमता रहता हूं
कभी इस नगर कभी उस नगर।
कौन सी गाड़ी मुझे
मंजिल तक पहुंचा दे
अभी कोई ना खबर
जितना लंबा सफर
उतनी ज्यादा मुसीबतें।
फिर भी रुकने का मन नहीं करता
भरोसा है मुझे अपने आप पर
मैं किस्मत का नाम ले-लेकर
रुदन नहीं करता।
लोग कहते हैं कल किसने देखा
मैंने देखा है !
रात के उस पार
चमकते रवि को देखा है
उस कल में मैंने अपने आप में
एक छोटे से कवि में देखा है
अरे नहीं ! बनना तो इंसान है
'ओमदीप' कवि का नाम
तो अन्यास ही ले लिया
देखी नहीं कई दिनों से
आंखों से नींद ने जैसे
सन्यासी ही ले लिया।