मेरा अंतर्मन आईना (प्रतिबिम्ब)
मेरा अंतर्मन आईना (प्रतिबिम्ब)
मेरा लुट गया सब कुछ,
कुछ रिश्ते बचाने को
आज तन्हा खड़ा हूँ ठूंठ सा,
कोई पहचानता नहीं।
वो खैरों मकदम पूछते हैं,
जो गुनहगार हैं सभी
आज जंगल की भीड़ में,
अकेला खुद को पाता हूँ,
कुछ गुनाह मेरे भी थे,
जिसे खुदगरजी कहते हैं।
आज खुद को उसी गर्ज़ के,
पीछे छिपा पाता हूँ,
देख लेगा कोई मेरा अंतर्मन,
सोचकर मैं छुपकर
आज आईने से अपने,
मैं धूल को हटाता हूँ,
कुछ ख़्वाहिशों को पाल पोस कर,
इतना बड़ा किया खुद को,
कितना छोटा नजर आता हूँ।
रात गुजर गई,
सवेरा करीब है,
रोशनी से अपने,
मन को बहलाता हूँ।।