मेहनतकश हाथों का महाकाव्य
मेहनतकश हाथों का महाकाव्य
वो दृश्य याद आ रहा है
जब पिता शाम को लौटते थे
ग्रीस लगे, कसैले महकते
एक जोड़ी हाथों के साथ।
उनकी साईकिल की घंटी से
उनके आने की ख़बर मिलती थी
शालीन क़मीज़ में ग्रीस के धब्बे
बातें करते हुए यहाँ-वहाँ रहते थे।
पिता के अंगों में सबसे समझदार
उनके हाथों की भंगिमाएं होती थीं
कभी-कभी अकेले में वे हाथ
उनके साथ आराम से सोचा करते थे।
हर रोज़ बूढ़ी होती घर की दीवारें
उनके हाथों से उनके सोने के बाद
ख़ूब बातें किया करती थीं जैसे गुफ्तगू
किसी पिता की तरह ही मज़बूत और,
धीर-गंभीर हुआ करती हैं, घर की दीवारें
अब पिता बुज़ुर्ग हैं और हाथ भी और दीवारें भी
पर एक अज़ब बात आज भी है
उनके हाथों में से मेहनत की छाप
जाती नहीं, थकावट भी चिपकी हुई है,
फिर भी...
उनके हाथों में मेहनत का
महाकाव्य रचा हुआ है...
ध्यान से देखने पर मालूम होता है
उनकी हाथों की लकीरें हिलकर
जैसे महाकाव्य पाठ कर रही हों
मेहनत का...ज़िंदगी का...रिश्तों का...।