मैं, वो, और रात...
मैं, वो, और रात...


है चाँद की जो दास्ताँ
वो रात की किताब में
जुदा वो और बातें रात की
होठ थरथरा रहे यादों के सैलाब में
अब फुरकत की इन्तहा न करो
कमी लाओ अपने रुबाब में
बस करो ये ही दुआ
हो मैं, वो, और रात साथ में..
है गुल को क्या ऐतराज़
वो तो कब्र में भी महकता है
जुदा है दोनों तो क्या
तन्हाई बीते पलों पर फ़िदा है
हैरत हुई ख़ुदा को मेरी मुस्कान से
तभी कमी नहीं लाता अपने रुबाब में
मेरे पास तो एक ही दुआ है
हो मैं, वो और रात साथ में..