मैं सामने बैठी हूँ
मैं सामने बैठी हूँ
मैं सामने बैठी हूँ,
और तुम भटक रहे हो
अँधेरा अभी हुआ भी नहीं,
पर तुम मुझे देख नहीं रहे हो।
हाँ थोड़ा शोर है,
कहीं शाह मिले हैं, तो कहीं शहादत
पर ये शोर है उनके,
मेरी आवाज़ नहीं
पर तुम उस ओर मुड़े जा रहे हो।
इस रास्ते को अब तक सुना नहीं,
सूखे पत्तों के बिछौने पर
तजुर्बों की चादर है।
विश्वास की रौशनी है
और हवा में सुकून का इत्र
ये स्वागत है मेरा
पर तुम आशंकाओं से डरे जा रहे हो।
जो सोचते हो
कि अकेले हो,
कि ऐसा कभी हुआ नहीं,
किसी ने ऐसा पहले किया नहीं।
जो ऐसा ना हो, तो क्या हो।
जो ऐसा हो, तो क्या हो।
दूसरा तुम भी वहीं है
तुम में ही कहीं, वो सही है
पर तुम भेड़ों के झुंड में घुसे जा रहे हो।
बरस बीते हैं
बस तुम्हें यूँ देखते हुए
अब साथ चलना हैं
मुझे भी जीना हैं
मैं कल हूँ तुम्हारा
ये यकीन रखना है।
ये आवाज़ तुम्हारे अंदर ही है
बस बाहरी शोर थोड़ा कम करना है।
मैं तुम्हारी राह तक रही हूँ,
पर तुम यहाँ से गुज़र ही नहीं रहे हो।
ये सफ़र लंबा है
रास्ते पर कठिनाइयों के कंकड़ भी
माना ये थोड़ा ज्यादा है
पर बस थोड़ी सी मेहनत
और मंज़िल सामने इस्तकबाल करती है।
मैं वहीं से तुम्हें देखती हूँ
पर तुम अभी तक सोच ही रहे हो।
जो ठानो,
तो बस चल दो
इंतज़ार जो था सावन का
तो अब बरस लो
मैं तो कब से ही प्यासी हूँ,
तुम्हारा गला तो अभी सुखा है।
मैं तुम्हें पुकार रही हूँ
और तुम मुझ तक चले आ रहे हो,
जो ऐसा होगा, तो अंततः अंत होगा
वो अध्याय कि
मैं सामने बैठी हूँ,
और तुम भटक रहे हो।।
