मैं पुकारती रही, पर कृष्ण तुम नही आये
मैं पुकारती रही, पर कृष्ण तुम नही आये
मैं पुकारती रही, कृष्ण तुम नहीं आये.....
माना सदा से विवश रही ममता,
माना हर युग मे देवकी- उतरा की व्याकुलता,
पर फिर भी तुमने अवतार लिया,
सबका तुमने ही उध्हार किया,
मैं पुकारती रही, कृष्ण तुम नहीं आये.....
मैं निर्छलि फिर छली गयी सिया समान,
अंतर था,
सीता ने स्वर्ण मृग देखा और मैंने स्वर्ण फल,
यहाँ कलियुग का मानव स्वतः मामा मारीच बना,
सारी माया थी उसकी,
और जलमग्न हुई मैं,
मै पुकारती रही, कृष्ण तुम नहीं आये. ....
धरा पर सर्व प्रथम पूजा होती गजानन विनायक की,
मिट्टी के साँचे मे ढाल,
मेरे ही प्रारूप की पूजा करते हो,
फिर क्यो मेरे गज- वत्स का ये हाल- बेहाल,
पूछ रही ये विनायकी,
सोच कर हैरान लेते गई जलसमा धी,
मैं पुकारती रही, कृष्ण तुम नहीं आये.....
वो तुम्ही थे, केशव
जब उत्तरा की कोख पर,
द्रोणाचार्य का चला ब्रह्मअस्त्र ,
तुम दौडे़ दौडे़ आये,
बन वंश बीज का कवच,
मेरी भी आकुलता थी,
बचे मेरा अंग- अंश,
वो भी मेरा अभिमन्यु था,
कृष्ण, पालन पोषण पर उसका भी हक था,
नियति के चक्रव्यूह ने
गर्भ मे ही भेदन कर डाला,
अंतिम बेला तक निहारती रही,
पर कलियुग मे कृष्ण तुम नहीं आये.......।