मैं नदी
मैं नदी
पर्वत के ललाट पर वास कर
शीर्ष का अभिषेक करती हूँ
पर्वत के ह्रदय से निकलकर
पीयूष सामानं सरल सहज बहती हूँ !
समंरसता में सराबोर कर धरा को
सागर तक अपना विस्तार करती हूँ
प्रकृति के कण कण को सींचकर
लता वृक्ष फल फूल जीव जंतु में
संतृप्त प्राण का संचार करती हूँ!
कंचन मृदा को अपने साथ प्रवाहित कर
उपजाऊ मैदानों का सृजन करती हुँ
बीज को जन्म हेतु गोद सौंपकर
अंकुरण के लिये वरदान देती हूँ !
सूर्य किरणों से स्वयं को सुशोभित कर
तेजस्वी ओज का प्रसार करती हूँ
अलंकृत घाटियों का निमार्ण कर
जल थल नभ का शृंगार करती हूँ !
कलकल मधुर संगीत सुनाकर
बंजर रेगिस्तान मे भी गुल खिलाती हूं
सम्पूर्ण जीवन का आधार बनकर
सृष्टि के जीवनचक्र को आगे बढाती हूँ!