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संजय असवाल

Classics

4.7  

संजय असवाल

Classics

मैं डोम हूं !

मैं डोम हूं !

2 mins
278


मैं डोम हूं,

हां इसी नाम से 

तुम मुझे पुकारते हो,

बात बात पर तैश 

मुझे देख कर खाते हो,

धकियाते हो मुझे गरियाते हो


देख सामने अक्सर 

नाक मुंह सिकोड़ कर

तुम सकपका हट जाते हो,

बराबरी की बात हो तुमसे 

ये मैं उम्मीद सदियों से नही करता

मुझे ठोकरों में रखना 

गालियां मुझे बकना


जूठन अपनी देकर

तुम अपनी शान समझते हो,

पर मुझसे अपनी हर गंदगी

के काम तुम करवाते हो,

छुआ छूत भेद भाव 

इतना है मन में तुम्हारे कि

मेरे खाने के बर्तन भी 


मेरे जैसे हैं जिन्हें

मुझसे धुलवाकर

अलग तुम रख देते हो।

कभी विचारों से 

कभी लाठी डंडों से

कभी हिकारत भरी नजरों से 

तुम मुझे मारते हो,

सदियों से 


गुलामी की जंजीरों में बांधा है

पीढ़ी दर पीढ़ी

मुझे समाज का भुक्त भोगी 

गुलाम बनाया है,

मैं तुम्हारे नापाक कर्जों में डूबा रहता हूं


खाली पेट आया हूं 

खाली पेट ही सोता हूं,

उपेक्षा शोषण अत्याचार 

ये मुझे तुमने इस कदर दिए हैं

सदियों से जो जुल्म तुमने किए हैं

उनका हिसाब तुम ना दे पाओगे


अपने कृत्यों पर 

शर्म से डूब मर जाओगे,

पर शर्म तुम में बची कहां है

तुम्हारा अहम झूठी शान 

जब तक तुम में जिंदा है,

अपने कृत्यों को तुम 

सही साबित करते रहोगे,

तुम्हारे बनाएं 


रीति रिवाज भी अजीब हैं

पत्थर को पूजते हो

पत्थर पर सर पटकते हो

पर हम इंसानों को 

बेगैरत अस्पृया समझते हो,

कुरीतियों की जंजीरों में हमे बांधते हो

हमे जानवर से बदतर समझते हो,


हम भी मन मार कर 

तुम्हारे बनाए नियमों को मानते हैं

अपने अरमानों को 

अपने हाथों ही दफन करते हैं,

हमारा भरम 

हमारे शरीर की तरह 

अक्सर टूटता है,


शोषित हुआ हूं सदियों से

शोषित होता रहता है,

जिंदगी हमारी जिल्लत भरी है 

तुम्हारी गंदी सोच 

तुम्हारी गंदीगियो से अटी पड़ी है,

हमारे हक हकुकों पर 


तुम कुंडली मार कर बैठे रहते हों

हमारा शोषण कर 

हम पर अहसान करते हो,

पर मोक्ष तुम्हें तभी मिलता है

जब मैं अपने हाथों से 

तुम्हारे नापाक जिस्मों को 

तिरस्कृत तुच्छ विचारों को 


चिता की आग 

अपने हाथों से देता हूं,

तब तुम उस जहां की 

वैतरणी पार करते हो.....!


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