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Indu Kothari

Abstract

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Indu Kothari

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मैं बस हूं

मैं बस हूं

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मैं हूं बस ! सड़क पर नित दौड़ा करती हूं

 निकलती हूं रोज,नये शहर की तलाश में

 एक शहर से होकर दूजे तक जाती हूं ।


 टेढ़ी मेढी,ऊंची नीची घाटियों पर कभी

 बलखाती,हिचकोले खाती,बढ़ती जाती

 यात्री,असबाब लदा होता, मुझ पर भारी

पहुंचा देती सरपट घर,मैं अपनी सवारी ।


लोग गंतव्य पर पहुंच मिटा देते थकान 

सफर की अपनी,पर मैं चलती अनवरत

और दिन भर देखती हूं, चेहरे अनेकों

कुछ फूल से ताजे,कुछ भूखे,मुरझाए

जवान,बूढ़े और बच्चे सभी मुझे भाते


पर कुछ ,गंदगी फैलाकर,बड़ा सताते

नहीं होती हूं दुखी,मैं कभी इस बात से

कि कर देते हैं, मुझे गंदा छोटे बच्चे 

पर ठेस पहुंचती मन को मेरे तब,जब

 नासमझ बन जाते हैं,अच्छे अच्छे।


 खुशी से करती हूं स्वागत सभी का,

 चाहे अमीर हो ,या हो कोई गरीब

 करती नहीं मैं,भेदभाव किसी में भी

 सभी मेरे जिगर के होते हैं टुकड़े ।

 खुश होती हूं देखकर,नित नये मुखड़े


सड़क और मेरा, है जन्मों का नाता

 पड़ती है दरार, जब दिल पर उसके

 तो मेरे बेजान टायर भी नहीं खिसकते

ठहर जाती हूं,मैं वहीं दर्द बांटने उसका

उसके बिना मेरा भी,अस्तित्व है कहां

हूं मैं भी वहीं, मेरी सड़क है जहां।


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