कराहता पर्वत
कराहता पर्वत
गिरिराज तुम रत्नों की खान
खड़े हो फक्र से सीना तान
बनकर ढाल भारत -भू की
बढा रहे तुम वतन की शान
परन्तु स्वार्थी मानव ने तुम्हारा
सारा तन छलनी कर डाला
हरियाली को नोच नोच खुद ही
क्रूर काल का बन रहा निवाला
पिघल रहे बड़े- बड़े ग्लेशियर
बढ रही भूगर्भ में भी हलचल
दुर्दशा पर अपनी प्रतिपल पर्वत
निस्तब्ध मौन खड़ा है अविचल
क्षत विक्षत कर डाला उसको
जख्मी हो गया सकल शरीर
द्रवीभूत हो रहा हृदय उसका
नित अश्रु बहा, हो रहा अधीर
कराह रहा गिरिराज निशिदिन
बिता रहा निज दिन गिन गिन
क्रूरता देख कांप रहा थर-थर
रहम कर मानव अब उस पर।
