मैं और मेरा "मैं"
मैं और मेरा "मैं"
मैं
और मेरा “मैं”
अक्सर
भिड़ जाते हैं
अपने अपने अस्तित्व को लेकर;
वह
मुझको बार बार जतलाता है -
“मैं सुनता हूं,
मैं कहता हूं,
मैं करता हूं,
मैं आता जाता हूं”
अक्सर कहता रहता है -
जान लो
“मैं समर्थ,
मैं सर्वज्ञ”;
भूलता है -
सुनता है वह
क्योंकि कोई कहता है
कहता है वह
क्योंकि कोई सुनता है;
भूलता है वह -
कोई निष्क्रिय है,
तब ही तो वह कुछ कर पाता है;
नहीं सोचता -
यूं ही तो कोई नहीं आता जाता है;
भूलता है वह -
उसके समर्थ होने में
किसी असमर्थ का बड़ा हाथ है;
वह सर्वज्ञ है
क्योंकि कहीं कोई अज्ञ है
मैं और मेरा “मैं”
अक्सर भिड़ जाते हैं -
अपने अपने वर्चस्व को लेकर,
अपनी वरीयता को लेकर;
देखा जाए तो
मेरा “मैं”-
मेरे अस्तित्व का
अहम, अविभाज्य अंग है:
किंतु सत्य यही है
कि “किसी” के न होने से
“मेरे” न होने से
मेरा “मैं” नितांत अस्तित्वहीन है।
