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Dr. Anu Somayajula

Abstract

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Dr. Anu Somayajula

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मैं और मेरा "मैं"

मैं और मेरा "मैं"

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 मैं

 और मेरा “मैं”

 अक्सर

 भिड़ जाते हैं

 अपने अपने अस्तित्व को लेकर;


वह

मुझको बार बार जतलाता है -

“मैं सुनता हूं,

मैं कहता हूं,

मैं करता हूं,

मैं आता जाता हूं”


अक्सर कहता रहता है -

जान लो

“मैं समर्थ,

मैं सर्वज्ञ”;


 भूलता है -

 सुनता है वह

क्योंकि कोई कहता है

 कहता है वह

क्योंकि कोई सुनता है;


भूलता है वह -

कोई निष्क्रिय है,

तब ही तो वह कुछ कर पाता है;

नहीं सोचता -

यूं ही तो कोई नहीं आता जाता है;


 भूलता है वह -

 उसके समर्थ होने में

 किसी असमर्थ का बड़ा हाथ है;

 वह सर्वज्ञ है

 क्योंकि कहीं कोई अज्ञ है


 मैं और मेरा “मैं”

 अक्सर भिड़ जाते हैं -

अपने अपने वर्चस्व को लेकर,

अपनी वरीयता को लेकर;


 देखा जाए तो

 मेरा “मैं”-

 मेरे अस्तित्व का

 अहम, अविभाज्य अंग है:


 किंतु सत्य यही है

 कि  “किसी” के न होने से

 “मेरे” न होने से

मेरा “मैं” नितांत अस्तित्वहीन है।


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