माँ
माँ
वो कहती थी कि शरारत ना कर,
डांटती थी पुचकार कर।
हर लम्हे को जीना सिखाती थी,
बच जाऊँ मैं बुरी नजर से
कला टीका सदा लगाती थी।
सारी खुशियां मेरी झोली में हो
यह दुआ वो हरपल करती थी।
बालपन से मैंने यौवन में कदम रखा,
उसको भूलने लगा, बनाये नए सखा।
वय की सीढ़ियां चढ़ने लगा
सचमुच माँ को भूलने लगा।
अब वो दहलीज पर तरसती है
मेरी आहट को।
मैं एक अदद नौकरी पाकर फूल गया
जो दूर करती थी
मेरे पथ की हर रुकावट को,
प्रेयसी के प्यार में डूबा,
मैं मां को भूल गया।
जीवन की संध्या में
मां चावल से कंकड़ नहीं बिनती है,
वो बस तन्हाई को छिपाने
यूँ ही काम करती है।
माफी तो मुझे भगवान भी नहीं देगा
पर भूल सुधारने दुआ करता हूँ।
अगला जन्म तो देगा
शिकवा उसने किया नहीं,
फर्ज मैंने निभाया नहीं
फिर भी पूछो आज भी मां से
मुझे बुरा कभी बताया नहीं।
