मां के लिए भी दिखावा क्यों ?
मां के लिए भी दिखावा क्यों ?


कहते है
"मां उस खुदा की परछाई है"
फिर मंदिर के बाहर सिग्नल पर वृद्ध आश्रम में किसने बिठाई है ?
सोशल मीडिया पर छाई रहती मां के संघर्षों और अहमियत की लाइनों से सजी हुई तस्वीरों की बहार है,
लेकिन सच्चाई यह भी है , यही संघर्षों की देवी घर के किसी कोने में पड़ी मिलती बेबस और लाचार है,
संघर्षों की कीमत और आदर तो छोड़ो, होता भी इनके साथ परायों सा व्यवहार है,
खुद महफिल में रहते हो, मां को मिलती तन्हाई है
कहते हो "मां उस खुदा की परछाई है"
फिर मंदिरों के बाहर सिग्नल पर और वृद्ध आश्रम में मां किसने बिठाई है ?
! कभी कहते हो मां की गोद में जन्नत है,
फिर उसी जन्नत की देवी को जहन्नुम के दर्शन क्यों कराते हो ?
कभी जरूरत, कभी दुनियादारी तो कभी दिखावे
के लिए, मां को साथ रखने की औपचारिकता क्यों निभाते हो?
" फिर कहते हो मां का प्यार ही हमारी सच्ची कमाई है"
लेकिन मन की नजरें मां की दौलत पर फिर क्यों गढ़ाई हैं ?
" कहते हो मां उस खुदा की परछाई है"
फिर मंदिरों के बाहर, सिग्नल पर और वृद्धा आश्रम में मां किसने बिठाई है ?
! " कहते हो मां से बड़ा कोई गुरु नहीं"
फिर बड़े होते ही मां का ज्ञान, मां की बातें, क्यों रूढ़ीवादी सी तुम्हें लगने लग जाती हैं ?
क्यों उसी गुरु मां की बातें तुम्हारे मन को बिल्कुल भी नहीं भाती है ?
मुझे पता है कुछ ज्यादा ही कड़वी ये मेरी लिखी हुई सच्चाई है,
" कहते हो मां उस खुदा की परछाई है"
फिर मंदिरों के बाहर सिग्नल पर और वृद्धा आश्रम में मां किसने बिठाई है ?