माँ है ज़नाब
माँ है ज़नाब


अभावों में में जीती वह निश्चल युवती
गोद में एक मासूम को लिए है घूमती
चेहरे की वह हँसी बस देखते ही बनती
सारी कमियां उसे मानो कुछ न लगती
अपने लाल को देख वह बलइयाँ लेती
काला टीका लगाबुरी नजर से बचाती
निष्कपट मुस्कुराहट वहां कभी न होती
स्वार्थ की राह पर जहाँ रिश्तेदारी चलती
ना कीमती कपड़े ना खिलौने दे पाती
ना ही कुछ स्वादिष्ट व्यंजन खिला पाती
उसके पास है समय की अनमोल थाती
अपने लाल को जो बेझिझक है दे पाती
उसे ही देखकर वह हँसती और गुनगुनाती
ईश्वर की इच्छा मान अपनी जिंदगी जीती।