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dr Nitu Tated

Tragedy Classics Inspirational

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dr Nitu Tated

Tragedy Classics Inspirational

तुम्हें ही क्यों ज़्यादा?

तुम्हें ही क्यों ज़्यादा?

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बाँटे जाते पेड़े

पैदा होने पर तुम्हारे,

पैदाइश पर मेरी लेकिन

लटक जाते मुँह सारे

माँग करो यदि कुछ तुम

तो झट से पूरी कर देंगे

वही, गर मैं माँग लूं

टका-सा जवाब ही देंगे


बाहर घूमो तुम, बेधड़क

दिन हो या फिर आधी रात,

मुझ पर लगते है, केवल

पाबन्दियाँ और कड़े पहरे

जब आई आगे बढ़ने की बारी

तुम्हें थमाते हैं सपनों की कलम

और तुम रच लेते हो इतिहास नया

और मुझे पकड़ा दी जाती है


ज़िम्मेदारियों की कड़ाही

मैं पकाती हूँ ,नित नए व्यंजन,

क्षुधा मिटाने को तुम्हारी

और मन ही मन करती हूँ प्रार्थना

,तुम्हारी तरक्की के लिए

मगर,बंद दरवाजों में

भी शिद्दत से भेजती हूँ

मेरी मौन अर्ज़ियाँ


उस परमपिता को

और एक नए विश्वास के साथ

फिर से भरती हूँ

मैं पँखों में अपनी पूरी ताकत

छू लेने को गगन की ऊँचाई

तभी हाथ मेरे पीले कर,


थमा देते हो मेरे

जीवन की डोर

किसी और के हाथ

बस फिर क्या !

कठपुतली-सी मैं,


नाचती हूँ

तुम्हारे अलिखित

नियमों की रंगभूमि पर

जहाँ मेरा पात्र

सदा मौन

भूमिका निभाता है

और तुम!!तुम होते हो

मुख्य किरदार

तुम सदैव

कर सके मन की,

मैं तो सुन भी न सकी

अपने ही तन की

क्या मेरे सपनों का

कोई मोल नहीं ?


फिर शुरू होता है

वही चक्रव्यूह

इसलिए ही शायद

हर माँ डरती है,

नहीं चाहती है

जन्मना बेटी को

कहीं उसे भी न

सहनी पड़े ऐसी प्रताड़ना।


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