लेखन के साथ इन्साफ
लेखन के साथ इन्साफ
सुना था बचपन में,
मन के भावों को लिखना ही लेखन है।
कितना आसान है बोलना,
मग़र क्या हम मन के भावों को लिख भी पाते हैं?
जो हम बड़े अहंकार से कहते हैं कि हम लेखक हैं,
क्या सच में हम लेखक हैं?
मन के भाव ही लिखते हैं,
या फिर बस अपनी स्वच्छ छवि को उभारते हैं,
वाह-वाही लूट सकें,
अपना न सही,
किसी और के दुखड़े को सरेआम कर।
बिल्कुल हम लेखक हैं,
अच्छे से लिखना जानते हैं,
मग़र जो लिखते हैं, क्या वो हम हैं?
हमारा लेखन पता नहीं कितनों को प्रभावित करता होगा,
हमारे लिए लोगों की भावनाएं भी उजागर करता होगा,
वो गौरवान्वित भी महसूस करता होगा,
जो हमें पढ़ता होगा हमें और समझता भी होगा,
मग़र क्या होता होगा
जब हमारा लेखन हमें ही हम से अलग दिखाता होगा,
और यों कितने ही पाठकों का दिल चकनाचूर होता होगा
और साथ ही लेखकों के सपनों का महल भी हवा हो जाता होगा,
जो किसी लालच की उम्मीद नहीं करते बस,
जानने की कोशिश करते हैं खुद को ही,
और कितना अकेला महसूस करते होंगे वो लोग,
जब वो भी कभी जुड़ जाते हैं ऐसे ही किसी दोगले लेखक के साथ,
कितना शर्मिंदा उन सच्चे लेखकों को होना पड़ता होगा।
माना कि सच लिखना आसान नहीं,
दूसरों के रहस्य लिखना भी मुश्किल रहता होगा,
तो क्या झूठ लिखना ही उचित होगा?
माना कि हम अपनी बुराइयाँ देख नहीं पाते,
गलतियों का पुतला ज़रूर है मानव,
तो क्या अपनी केवल स्वच्छ छवि दिखाना उचित होगा?
मौलिकता का प्रमाण चाहे न देना पड़ता हो,
तो क्या वाह-वाही की लालसा में,
अपने लेखन के साथ इन्साफ न करना उचित होगा?
