लौट रहा हूँ अपने शहर
लौट रहा हूँ अपने शहर
तुम्हारी इंच - इंच मुस्कान समेटकर,
तुम्हारे साथ बिताये गये हर लम्हे की याद सहेजकर,
तुम्हें अपनी लेखनी की स्याही में भरकर,
तेरी तस्वीर को अपना तकदीर बनाकर।
लौट रहा हूँ मैं अपने शहर !
इस उम्मीद के साथ की जल्द ही लौट आऊँगा।
तुझे भी अपने साथ हमारी अपनी दुनिया में ले जाऊँगा।
जहाँ भी रहूँगा तेरी नटखट मुस्कान के साथ मिसाल पेश कर दिखलाऊँगा।
तुझे अपनी अल्फ़ाजों में आवाज़ बनाकर हर पल गुनगुनाऊँगा।
तुम्हारी इंच - इंच मुस्कान समेटकर लौट रहा हूँ मेरे हमसफ़र हमारी अपनी सपनों के सफर में।
पहली और आखिरी मंज़िल अब तो तू ही है।
तुम्हें ही अपनी सरगम में भरकर लौट रहा हूँ मेरी सुरभि अपने शहर।
दिन में जब तुझे पाना चाहूँगा महसूस कर लूँगा उस लीली की नटखट खिलती मुस्काती कलियों को।
रात्रि में तुझे टिमटिमाती ट्विंकल में महसूस कर लूँगा तुझे।
मगर ये सब तो कवि कल्पित है !
तेरे बिन कैसे रह पाऊँगा ये कैसे मैं अपने अल्फ़ाजों में बयां करूँ ?
फिर भी तेरी मुस्कान के साथ जहाँ भी रहूँगा मिसाल पेश कर दिखलाऊँगा।
लौट रहा हूँ अपने शहर!
मगर इस उम्मीद के साथ की जल्द ही तुझे अपने साथ अपनी दुनिया में ले जाऊँगा।
तुम्हारी इंच- इंच मुस्कान समेटकर लौट रहा हूँ अपने शहर।