लालसा
लालसा
देखो ! कैसे आत्मपालित,
लालसा का बोझ है,
खुद पे लादे हुए।
भाग रहा मुँह बाये,
अपने हाथ-पैरों को,
दो- चार किए हुए।
कैसे ! उपभोक्ता का
बाज़ार अपनी पीठ पे,
है शान से लादे हुए।
कामना और लालसा,
की गहरी खाई में,
गिरने के लिए।
सरपट भागता ही जा रहा,
होशो हवास नहीं है,
अब सम्भले हुए।
लक्ष्यपूर्ति-सिद्धान्त में है ,
देखो कैसे अटके हुए
जैसे कोई कच्चा रास्ता,
रास्ते ही से भटके हुए।
अब कहाँ व्यक्ति है वो,
बस माप की इकाई है।
नहीं जानता ,
जिस रास्ते पे है,
भागता जा रहा,
वहाँ अंत में गहरी खाई है।
