क्यूँ बार-बार
क्यूँ बार-बार
क्यूँ बार-बार
बदलने मुझे कहते हो ?
मुझको बस थोड़ा सा
'मैं' ही रहने दो।
मैं हूँ इक अलग पहचान
खुद सा बनाओ ना
मुझे हक दो रंग चुनने का
दूसरे रंगों में रंगाओ ना।
अब यूँ ही खुद को
कब तक ढालती रहूँ ?
खत्म हो गये सारे ढाँचे
नया कहाँ से लाऊँ ?
हरदम मुझ से ही
इतनी आस लगाइये ना
दम घुटने लगता है
खुली साँसों से खुलने दो जरा।
क्यूँ बार-बार हर बार
मुझसे ही झुके रहने की माँग
गलत है सामने वाला फिर भी
वही सम्मान का हकदार ?
झूठ बोल के, मुँह बनाके
सब हतियाना जिसकी आदत है
करने दो कुछ भी कारनामे
बिखरने वालों में से नहीं हूँ मैं।।