क्या कसूर है मेरा
क्या कसूर है मेरा
क्या कसूर है मेरा
यही कि मैं जन्मी हूं
बेटी बनकर,
तुम्हारे इस कुत्सित विकृत
घृणित समाज में,
जहां मुझे ना बराबरी का हक हो
जहां मेरी अस्मिता का
रोज सौदा हो,
जहां मेरे विचारों को रौंदा जाए
चार दिवारी में कैद कर रोका जाए,
क्या घर क्या बाहर
हर जगह धिक्कारी जाऊं
सपनों को रौंद मेरे
मैं मारी जाऊं,
जहां अपनों और समाज से
मुझे हर वक्त
हर जगह लड़ना होता है
रूढ़िता कट्टर पंथ का जहर पीना होता है,
बचाना होता है
अपने अस्तित्व को
इस खोखले समाज से,
जिसे मैंने खुद पैदा किया
अपने कोख में,
और मार दी जाती हूं
हमेशा मैं उसी कोख में
जो सृष्टि सृजन का आधार है,
मैं हरदम लड़ती हूं
उन सामाजिक बंधनों से,
उन कुरुतियों से
जिसने नारीत्व का उपहास किया,
पर डरती हूं
सहमी जाती हूं
उन शोहदों से,
उनकी रोज रोज के छेड़छाड़ से
आए दिन बलात्कार से
एसिड के जख्मों से,
उन तानों की मार से
अनेक उपनामों से
जो मेरे कानों में
हरदम पहुंचती है
मुझमें खौफ पैदा करती है,
तब टूट जाता है
मेरा आत्मबल
दहल जाता है मेरा दिल,
जब देखती हूं
ये पुरुष वादी मानसिकता
घृणित सोच
ललचाई नज़रे
हरदम गड़ाए बैठे हैं
मेरे जिस्म पर
गिद्दों की भांति,
कि कब मौका मिले
और नोच खाएं,
यहां भावनाओं का
परस्पर रिश्ते नातों का
कोई वजूद नहीं,
यहां सिर्फ स्त्री देह की गंध
इन भूखे भेड़ियों को सुहाती है,
पर क्या कसूर है मेरा
जो इस संसार को पाला मैंने
अपने आंचल में,
और बेटी बन कर पैदा हुई
आपके सबके घर में ।
