कविता ! सुनो न..
कविता ! सुनो न..
कविता ! सुनो न..
कब तक रूठी रहोगी ऐसे ही !!
पता है मुझे
कोई परिवर्तन नहीं होगा
मेरे "लिखने" से,
जंगलों की कब्रों पर
यूं ही उगती रहेगी
गगनचुंबी इमारतें,
लौट जायेंगे वापस
बादल यूं ही आकाश में
बिना बरसे हुए ही,
बीत जाएंगे सावन
बिना भीगे हुए ही,
दुबकी पड़ी रहेंगी
किसी कोने में
ये कागज़ की नावें,
कहीं नहीं दिखेगी चिरैया
किसी भी डाल पर,
..और इस तरह
रह जायेंगे अधूरे ही
सभी प्रेम-पत्र !!
कविता ! सुनो न..
अब मान भी जाओ,
संभवतः तुम्हारे लौट आने से
लौट आएंगे - बादल,
बारिश और चिड़ियां
हरे जंगलों में,
और..
सावन की फुहारों में
एक लड़की लिख रही होगी
कोई खत !!