कुर्सी की चाह
कुर्सी की चाह
देश की गति क्या है ? जनता की मति क्या है ?
यह उन्हें कहाँ गवारा लगता ? उन्हें तो अपने वोट- बैंक की सूझती चारागाह है ! नेताजी को तो बस! कुर्सी की चाह है। मँहगाई की होती चौड़ी छाती, बढ़ती बेरोजगारी की बेलगाम गाड़ी! ऊपर से नीचे तक केवल 'चढ़ावे' की ही वाह-वाह है ! उन्हें तो बस! अपनी कुर्सी की चाह है।
अब भाई कौन करे देश की सेवा ? किसे जीना दुश्वार है ? सब पौ- बारह में लगे हैं भईया ! लूट रहे हैं जितना बन सके रूपईया! जो जिसके हाथ में आ गई आसान हो गई उनकी सत्ता की राह है ! नेताजी को तो केवल कुर्सी की चाह है !
सीधी ऊँगली से जब घी निकल रही ! तो किसे ऊँगली टेढ़ी कर जोखिम लेने की परवाह है ? जो जिस जगह बैठा हुआ है ,वो उस जगह का शहंशाह है ! चारों और धर्मयुद्ध छिड़ी है ,इसमें लूटनेवाले की ही धूम - धड़ाह है ! उन्हें तो बस कुर्सी की चाह है !
पर अफसोस ! जिसे तुम लुट रहे ? सिरप दूसरे का खुद घूँट रहे ! वो तेरी पूर्वजों की देखी 'सपनों के भारत 'की दिखती कहाँ राह है ? कितनों ने बलिदानियाँ देकर सजाया इस धरा की उत्साह है। आज तुम अपनी माँ को क्यों भूल गये तुम।क्या यही तेरी संस्कति और संस्करों ने पकड़ाई राह है ? सुबह के भूले शाम लौट आओ तुम इसी में तुम्हारी कर्तव्यनिष्ठा और देश की समृद्धि की छुपी चाह है ?? उन्हें तो बस केवल ?
