कुछ ख्याल यूँ ही
कुछ ख्याल यूँ ही
बेहद झिझक शर्म से अपने
एहसासों को लफ़्ज़ों में पिरोके,
ब्यान करने की मुख़्तसिर-सी
कोशिश की उसने,
किस्मत ! वह शायरी की
तारीफ करके चला गया।
एक बेख़ौफ़ गूंज अक्सर
दिल की तारों को छेड़ती है,
ख्वाबों के शामियाने
इतने हलके क्यों होते है,
हकीकत के मर्म थपेड़े भी,
पलक झपकते ही फना
कर देते है उन्हें।
अपनी शख्सियत को तो
हँसी के झुरमुठ के पीछे
दफ़न कर रखा था उसने,
फिर उसके अक्स तक वह
नज़रें कैसे पहुंच गयी,
एक एक पन्ने को पढ़ डाला उसने,
रूह की जुबां पड़ना
समझना इतना आसान नहीं होता।
हर बार की तरह रौशनी की
एक झलक दिखते ही,
वो उसके पीछे भाग पड़ी,
किस्मत ! अबकी बार भी
अँधेरा ही हाथ आया पर,
अब यकीन हो चला था उसे,
जिसे वह तलाश रही है वह,
उस तपते रेगिस्तान पर दिखता,
पानी का छलावा है बस।
कितनी पाक-सी थी, सहमी
अध्खुली काली पर बिखरी
वह शबनम की बूंदें,
कौन कहता है अश्क बहाना
सिर्फ़ इंसानो की फिदरत है।
वो हर रोज़ की तरह शब् होते
ही छत पर भाग पड़ती,
चाँद हर रात उसकी मोहब्बत का
पैगाम जो लेके आता था,
करती भी क्या,
शब् से सहर तक का वक़्त ही तो
किस्मत ने उसे अताह किया था,
दूर से ही सही घंटो उस शशि की झलक में
अपने मेबहूब से बातें कर लेती
अज़ाब-सी कला थी दिल को
तस्सली देने की।
बिजली-सी कौंध गयी पूरे जिस्म में
जब मुस्कुराये वह,
गलती से हमने उन काशनी आँखों के
एक मायूस कोने में छुपे
आंसुओं को देख लिया,
सबसे मुँह छुपाये
अँधेरे का चोला ओढे
सिसक के बैठे हुए थे,
उस थिरकती मुस्कान
के साये में।
घड़ी की सुइयों से वक़्त को
बांधने की कोशिश तो बेइंतहां की,
न मुड़ा न रुका न लौट के आया पर,
वो जा चुका है, जाने दिल कब
इस बात की गवाही देगा।
ज़िन्दगी की किताब के पन्नों को
पढ़ने जो बैठे इल्म तब ये हुआ,
हमने समुन्दर किनारे रेत पर
मकान बना रखे थे,
तभी आज तक घरोंदा
बन ही नहीं पाया।
शिकायतों का गुबार दिल से
होठों तक तो आ पहुंचा,
अश्क हर लब्ज के साथ
झलक पड़ते पर,
उस रंज के दामन में कहीं
अभी भी उन्स पनप रहा था।
हर थर्राते झोंके से समंदर पर
जो उफन रही थी,
वह ठंडी लहर की रेली ही थी
या परछाई थी मेरे अक्स की,
था तो मुझसे ही कुछ जुड़ा,
कभी जलजला कचोटता-सा
कभी टूटके बिखर जाना।