कृष्ण बनकर सारथी !
कृष्ण बनकर सारथी !
पंच तत्वों से बने इस
देह को विश्राम दें।
धूल धूसर अस्थि को अब,
इक नया आयाम दें।।
है सृजन और नाश होना,
जैसे पाना और खोना।
सुन के किलकारी पे हंसना,
और मरघट पर बिखरना।।
कुदरती प्रचलन है, हम सब,
मिल के यह सम्मान दें।
आगमन हो या विदाई ,
उसको मिल अंजाम दें।।
कौन किसका है पिता या,
कौन किसका पुत्र है।
कौन किसकी मातृसत्ता,
कौन अपना मित्र है।।
भ्रमित थे अर्जुन भी तब,
जब कर्म पथ पर थे जा रहे।
कृष्ण बनकर सारथी तब,
गीता ज्ञान सुना रहे।।
कर्म ऐसा कीजिये कि,
उसका इतना नाम हो।
आप रहिए या न रहिए,
आपका सम्मान हो।।
देह तो बस माध्यम है,
सब विधाता का है खेल।
आदमी होता है बन्दी,
दुनियां समझो इक है जेल।।
