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अच्युतं केशवं

Drama

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अच्युतं केशवं

Drama

कोटि-कोटि वर्षों से यूँ ही

कोटि-कोटि वर्षों से यूँ ही

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कोटि-कोटि वर्षों से यूँही

कुम्भकार का चाक घूमता


दूर-दूर तक अन्तरिक्ष में

घूम रहे हैं यान उसी के

अंकित जो पदचिह्न चन्द्र पर

गाते गौरवगान उसी के


सिन्धु तटों से सिन्धु तटों तक

कीर्ति-वल्लरी फ़ैल रही है

जगतजयी है किन्तु करों में

रीता भिक्षा-पात्र उसी के

भरे हाट में गाँठ कटा ज्यों

त्राण खोजता प्राण सूम का

कोटि-कोटि वर्षों से यूँ ही

कुम्भकार का चाक घूमता


अहोरात्र अनवरत कर्म से

हुए कठिन गिरी-शिखर ध्वस्त हैं

और समय से तीव्र अग्रसर

चला सयन्दन पथ-प्रशस्त है


जगत बंद जिसकी मुट्ठी में

दिग्दिगंत तक विजय पताका

वही मनुज क्यूँ लुटा पिता सा

दीखता हारा थका पस्त है


भीतर हाहाकार भरा है

बाहर से मदमस्त झूमता

कोटि-कोटि वर्षों से यूँ ही

कुम्भकार का चाक घूमता


यह प्रकृति तो है पान्चाली

मनुज हुआ दुश्शासन जाने

है रहस्य ही चीर रुपहला

नर जिसको हरने की ठाने


अनावरण करने की इच्छा

टूट चुकी है थकी भुजाएं

पर जिज्ञासा कुटिल शकुनिवत

ललकारे यूँ हार न माने


पर उलझे धागे कब सुलझे

व्यर्थ गया श्रम ह्रदय शून्यता

कोटि-कोटि वर्षों से यूँ ही

कुम्भकार का चाक घूमता


अर्थ काम के लिए मनुज ने

धर्म मोक्ष को भुला दिया था

कल्पलता का फल चखने को

मानव ने क्या नहीं किया था


पर ठोकर से सबकुछ खोकर

अब सच से पहिचान बनी है

रजनी के तिमिरान्ध गर्भ से

कल सूरज ने जन्म लिया था


त्याग पथी हो रश्मिरथी सा

भौम -व्योम का भाल चूमता

कोटि-कोटि वर्षों से यूँ ही

कुम्भकार का चाक घूमता।।


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