कोरोना और हम...
कोरोना और हम...
बहुत हो चुकी छेड़खानी प्रकृति से
कुछ तो खामियाजा चुकाना पड़ेगा,
बचाना है गर मानवता का उपवन
प्रकृति का अंक फिर से सजाना पड़ेगा।
नाम उत्थान का दें करके हमने
बसुधा को जाने कितना सताया
गगन चुम्बी आशियाने की खातिर
वन उपवन और जंगल का किया सफाया,
तोड़ा है जाने कितनी गलियां
चहचहाती चिड़ियों को बहुत है रुलाया
कहीं छाटे पर्वत, कहीं पाटी नदियाँ
जाने कितने पशु खग को लुप्त कराया।
शक्ति सम्राट की लिप्सा में हनन किया कितना
सुख भोग की ख्वाहिशों में हरण किया कितना।
चाहे हों रईस जादे या हो रंक कोई
प्रकृति का कहर किए भेद न करता,
ज्ञान विज्ञान सब सर झुकाये दिख रहे
एक ऐसी आपदा बन कोरोना है आयी।
मौन हैँ सभी हाथ पर हाथ धरे घरो में छिपे हैं
अमन और सुकून सब खो गया है।
बंद है कपाटे मंदिर मस्जिद और गिरिजाघरों के
ओ गुनाह भी अब कुबूल करे तो कहां?
स्वार्थ लोभ छल ईर्ष्या ने हमको कहां ला दिया
रहना मुश्किल हो गया धरा पर यहाँ
आओ बदलें कुछ कर्मों की दिशा को
बच गए तो भूलना न प्रकृति के साथ नाता।
जन्म जहाँ लिया उसका पालन है जरूरी
हमें भक्षक नहीं रक्षक बनके है रहना,
ये कहर ये दर्द बदलने की खातिर
साथ प्रकृति के हमको चलना पड़ेगा,
बहुत हो चुकी छेड़खानी प्रकृति से
कुछ तो खामियाजा चुकाना पड़ेगा।