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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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कितना आसान होता है

कितना आसान होता है

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कितना आसान होता है

इंसान को उसकी प्रतिबद्धताओं,

उसकी आस्था और विश्वास से

जोड जोड़कर

उसे उसकी ही जड़ों से काटकर अलग कर देना।

भावनाओं की बहती हुयी धारा

के भंवर में फंसा तो जाना।


उस महाभारत में सत्य के पक्षधरों के

बोये हुये शब्द बीज के

जंगल के बीच से गुजरते हुये

महसूस हुआ

हर पल जैसे रिपल्का हो उस एक शब्द का

अश्वत्थामा मरो नरो या कुंजरो।


समझा और जाना

जीवन की जटिलतावों को

कितनी सहजता से निर्मित कर डाला है

हमारे रहनुमा जैसे रहनुमा ने

और जिसकी रहनुमाई का

अनुचर भर रह गये है

हम हम ही क्या हमारा लोकतंत्र भी

हमारा लोकतंत्र ही क्यों हमारी सभ्यता भी।


कितना सहज है

इस जटिलता में खुद से जुड़ना,

अपनी सभ्यता से जुड़ना

हां इस सहजता के लिये यहॉं होना चाहिये।


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