किसान की पुकार
किसान की पुकार
मौन स्वीकृति
नहीं है ये मेरी
मेहनत है वर्षों की
अथाह पसीना बहाया
तभी मिली
दो जून की रोटी
यूँ बेमौसम बरसकर
मत मुझको
रुलाओ तुम
ऐ काले काले घन
जो एक बूँद भी
अब बरसे तुम
खाने को दाने
तरसेंगे हम
जो फिर भी
ना माने अभिमानी
और बरसाया जो
तुमने जल यूँ भर
प्राण मेरे फिर
ले जाना संग
फिर तुम ऐ
बिन मौसम के
काले घन।