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Sobhit Thakre

Romance Classics Fantasy

4  

Sobhit Thakre

Romance Classics Fantasy

ख्वाहिशें

ख्वाहिशें

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मन जो ख्वाहिशों का जंगल है 

इस जंगल अभ्यंतर

कभी मनमौजी मंगल है 

तो कभी रौद्र रूपी दंगल है 

आन खड़ी होती निज द्वार

अंगड़ाई लिए ख्वाहिशें नई

 

न भेदे हालात 

न देखे दिन -रात गति 

भ्रमर सी करती गुंजायमान कभी 

तितलियों सी चंचल हो मचलती 

दूर देश के पंछी सी 

इस छोर से उस भोर को टहलती 

ओढ़े कभी बैचेनियों की चादर लिए 


सपनों की ताबीर बुनती 

पल -प्रतिपल सिलवटें अपनी 

चाहतें बदलती 

क्यों नहीं पाती ये ठहराव कोई ?

उद्दीप्त हो जाती बुझी ख्वाहिशें भी 

जो होती अधूरी सी


दर्द देती 

कचोटती तो रूह को पर शोर न करती 

अफ़सोस के पीछे छिप जाती 

मन में बस रह जाती उदासीनताएँ

कितनी ही बार घेरा डाला 


वन में पसरे सन्नाटे सा इस गहन तिमिर ने 

हारा हुआ भी पाया

फिर भी बिन सींचे 

 गुलों सी महक उठती हैं 

अरण्य अभिलाषाएं 

देती ईहा को शीतल बयार रूप नया 

जंगल में उपजे तरुवर और लताएँ।


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