दोपहर की धूप
दोपहर की धूप
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दोपहर की धूप
जिसने ओढ़ रखी थी चादर
अपने ही गमों की
कभी कराहता
कभी हुंकार भरता
फिर दूर क्षितिज
में लालिमा लिए
अस्त हो जाता
सांझ को इंतजार
करता हुआ
एक -एक क्षण
तड़पता
फिर डूब जाता
अपने ही गमों में
मध्य रात्रि के
एकांत में
शिकायत करता
न्याय मांगता
अपनी ही सांसों से
टूट कर भोर में
आंसू लिए सो जाता
दोपहर की धूप के लिए ।