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Sobhit Thakre

Abstract

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Sobhit Thakre

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बावरा मन

बावरा मन

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दर्द में बीता आज और कल 

बिखरा हो जीवन का हर पल 

देख गहन तिमिर को 

मन मेरा भटक रहा है 

बावरा मन चटक रहा 

क्षण भर ठहरे यहाँ 

दूजे पल दिखे वहां 

क्या खोजे जाता है ?

कुछ भी तो समझ नही आता 

क्यों हुआ जाता बावरा 

क्यों है इतना बेचैन 

शांत चित्त कही नही पाता है

कुछ पाने की चाह नही

कुछ खोने को भी बचा नहीं

ऐ मेरे बावरे मन !

किस की प्रीत में खोया है 

झूठ ही झूठ यहाँ बोया है 

मूक ह्रदय पीड़ा सहो 

किसी से अब कुछ न कहो

कौन अपना कौन पराया

दिखती है बस प्रतिच्छाया

भूले बिसरी यादों में सोना

छुप छुपकर मन भरकर रोना

धड़कते और दहकते 

ह्रदय का कब होगा अंत

दूर होगी पीड़ा शांत होगा मन !



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