ख्वाब
ख्वाब
हमने बनाया था ख्वाबों का गुलिस्ता,
जहाँ जज्बातों की सतह पर
प्यार के गुल खिले थे..
अपनेपन और सम्मान के
दरख्तों पर सुकून के
रसीले फल लगे थे...
महक रहा था गुलजार
अरमानों का,
मोहब्बतों के झूले बंधे थे..
उन झूलो पर झूलती मैं
उन झूलों पर झूलती मैं !
अपनी हर ख्वाहिश की नुमाइश करती
ऊँचे-ऊँचे तेज भरती थी..
अपने वजूद पर इतराती
अपना अक्स झील में
देखा करती..
अरे ! उस झील का
जिक्र कैसे छूट गया ?
जिसके पानी में प्यार बहता था,
वह प्यार जो अहम है मेरा,
जिसमें मैं ही मैं झलकती हूँ...
प्यार ऐसा कि जिस के
आगोश में मेरे सारे
ऐब छुप गए हैं कहीं..
ख्वाब !
ख्वाब तो ख्वाब हैं
हकीकत तो नहीं,
हकीकत इतनी
खुशनुमा नहीं होती...
यहां सब है पर मैं नहीं,
मेरा वजूद हारा सा,
बेमानी सा अपने ख्वाबों की
टोकरी उठाए
भटक रहा है यहाँ-वहाँ
भटक रहा है यहाँ-वहाँ...