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Suresh Koundal

Abstract Tragedy

4.9  

Suresh Koundal

Abstract Tragedy

"खुदा "क्यों सोया गहरी नींद

"खुदा "क्यों सोया गहरी नींद

2 mins
391


मैं उठा सुबह मंज़र कुछ ऐसा देखा 

"खुदा " को गहरी नींद में सोते देखा

अचंभित हो कर मैंने उन्हें जगाया

गहरी नींद से उन्हें उठाया 

पूछा ऐ खुदा 

सुबह हो गई दिन चढ़ आया

क्यों ये नींद का आवरण चढ़ाया


खुदा बोला 

सुबह उठने की अब नहीं रही है चाह

कौन पूछता मुझको आजकल 

किसको है मेरी परवाह 

आपस में ही काम भी मेरे

खुद ही लेते हैं निपटा

सुबह सवेरे सबसे पहले तस्वीरें मेरी

वाट्सएप्प फेसबुक पर करते हैं अपलोड 

फिर एक दूसरे को भेजने की मच जाती है होड़

भूल गए हैं मुझको तब से

जबसे हाथ में आया फोन एंड्रोइड

ऑनलाइन ही सिमरन कर रहे 

सिमरन क्या खुदा को छल रहे

मेरी ओर से आशीर्वाद तक दे देते

मनोकामना पूर्ण होने का वर दे देते 


न कोई मुझको प्रणाम करता 

मुझको न कोई स्मरण करता 

गर सब कुछ अच्छा है मुझ बिन,

क्यों मैं अपनी टांग अड़ाऊँ

क्यों यूँ जल्दी उठ कर

अपनी मीठी नींद गवाऊं 

जाने क्या हो गया इस दुनिया को,

जाने क्या ये झोल चल रहा ,

मैं खुद हतप्रभ हूँ इन सब से

मेरी जगह कौन इन्हें कंट्रोल कर रहा 

इंसानीय की कीमत न रही,

हर जगह दिखावा कर रहे


मरते मानुष की मदद की बजाय,

सेल्फी और वीडियो बन रहे।

मैं नहीं किसी के दिल के अंदर रहता,

मैं अब फोटो और प्रतिमा में रहता 

मैंने इंसान को बनाया 

समझ कर अपना प्रतिरूप,

मुझको ही वो छल रहा

धारण कर बहुरूप

मेरे नाम का कर रहा 

जगह जगह उपयोग 

कभी राजनीति कभी दौलत की खातिर

कर रहा दुरुपयोग 


मेरे नाम पर बहका कर 

मासूमों को लड़वा रहा

नफरत के बीज डाल कर

ऊंची दीवारें चिनवा रहा 

क्यों मैं उसकी परवाह करूं 

क्यों मैं उसकी चाह करूं

जो मुझ को गया है भूल 

यही वजह है शैय्या पर 

अब तक पड़ा स्थूल 

मैंने कहा खुदा से 

ये सच है रब्बा विश्लेषण तेरा नेक 

इन मतलबी इंसानों में, मैं भी तो हूँ एक।



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