खिलखिलाए प्रेम दस्तक
खिलखिलाए प्रेम दस्तक
एक दिवस:
बसंत ऋतु सिय -राम उर में समाय
प्रेम के दहलीज में चकोर छाय!
पूछे मन के भ्रम टकटकी लगाय,
मेघ तुम क्यों नहीं जल बरसाय ?
प्रेम -अमृत घट कभी भरे ना हिय !
अग्नि लिप्त शूल जलता रह गया !
हिमांशु रजत ओज बिखरता रह गया !
अधूरा अक्ष बना रह गया !
जब:
बूंद बूंद मधु लेने अलि आते हैं
खिलखिलाती हंसी छोड़ जाते हैं !
दूर रश्मिरथी अश्व भानु लाते हैं
क्षीर सिन्धु कण कण भरते हैं !
प्रेम के निशब्द संदेश आते है
गुंजन कर कर्णों में रस घुल जाते हैं !
पश्चात :
तरु पर पुष्प आच्छादित हैं
प्रकृति को प्रण्य अर्पित करते हैं !
प्रेम छव अंकित मन है
बंद नेत्रों में सांचे-हरि दिखता है !
सत प्रेम के समीप है
मिथ्या जग लगता है !
प्रेम वो अदृश्य बंधी डोर है
खींचता कोई और है !

