"ख़ामोशी"
"ख़ामोशी"
मेरी ख़ामोशी अक्सर ये सवाल करती है,
ज़िन्दगी के बीते पलों का हिसाब करती है,
कदम बेताब थे मंज़िल पाने को,
बीच रास्ते में कहाँ भटके।
वो हिसाब करती है !
माना रास्तें सकरे थे,
पर मंज़िल पास थी,
हाथों से कैसे फिसल गयी मंज़िल,
ये सवाल करती है !
मेरी ख़ामोशी अक्सर ये सवाल करती है,
ज़िन्दगी के बीते पलों का हिसाब करती है !
नौका में बैठे थे,
चापू भी हाथ था,
किस दिशा में क़दम है बढ़ाना,
वो भी अहसास था,
फिर भी साहिल से रह गये कोसों दूर,
ये सवाल करती है !
मेरे बीते पलों का हिसाब करती है !
तन्हा बैठे हैं, ज़िन्दगी के इस पड़ाव में,
शिद्दत से जिया था रिश्तों को,
फ़िर कहाँ हो गयी चूक ?
ये सवाल करती है !
मेरे बीते पलों का हिसाब करती है !
रिश्तों को गूँथ कर माला पिरोई थी,
कैसे बिखरी रिश्तों की माला,
ये सवाल करती है !
मेरे बीते पलों का हिसाब करती है !
सीने में ज्वालामुखी लिए जीते रहें ताउम्र,
कहाँ दबा के रखा लावा,
ये सवाल करती है,
स्वाभिमान की चिंगारी सुलगी भी मगर,
कहाँ हो गई फ़ना ?
ये सवाल करती है !
मेरे बीते पलों का हिसाब करती है !
अश्क़ों का समुंद्र आँखों में छिपाये,
कैसे हँसते रहें हर - दम,
ये सवाल करती है,
दर्द के दरिया को,
पलकों ने कैसे संजोये रखा ?
ये सवाल करती है !
मेरे बीते पलों का हिसाब करती है !
चुप्पी का आवरण ओढ़,
कैसे रहते हैं ख़ामोश ?
राख के ढ़ेर में कहाँ दबाये रखी चिंगारी ?
ये सवाल करती है,
चिंगारी भी थी, बारूद भी पास था,
भभकने से, कैसे रोके रखा आग को ?
ये सवाल करती है,
"शकुन" मेरे बीते पलों का हिसाब करती है !