कहानी स्त्री की
कहानी स्त्री की
ये सिर्फ मेरी नहीं
हर स्त्री की कहानी है।
जिसकी घर में जगह नहीं
कहलाती वो रानी है।
बचपन में पिता के फरमान,
माता के दिल के अरमान,
भाई की ज़िद की ख़ातिर,
लुटाती अपनी मनमानी है।
कभी खुद के खिलौने तोड़ती,
कभी स्वयं ही पढ़ाई छोड़ती,
कभी परिवार का बोझा ढोती,
पल में बन जाती सयानी है।
यौवन से पहले ही जिसकी
हल्दी चढ़ने की तैयारी है
कच्ची उम्र में ही लगती,
मेहंदी जिसे रचानी है।
हाथों में वरमाला है,
सजा रूप अनूप है
होठों पर मुस्कान है
आँखों में बहता पानी है।
खनकती पायल रुनझुन सपने,
चाहत यूँ मतवाली है।
नए सफर पर अनजानी डगर,
वो प्यारा जीवन साथी है।
टूटे सपने बिखरते मोती,
ये साथ नहीं अपराध है,
जिसे माना मैंने देवता,
वो जानवर से भी बदतर है।
सब कार्य करे सबके मन के,
कोशिश करे खुश रखने की,
नहीं समझता पागल उसे
जिसने उसकी दुनिया बसाई।
जन्म देकर उसके अंश को,
जिसने उसकी बगिया महकायी,
उसी माली ने अपने हाथों,
उसी वृक्ष की जड़ें कटवायीं।