ख़ामोश लफ्ज़
ख़ामोश लफ्ज़
दिल में दबी दास्तां को,
उसकी चेहरे भी कुछ बयां कर रही हैं
शायद कहना है उसे बहुत कुछ मगर,
बेजुबान बनी क्यूँ खड़ी हैं।
सवाल जो उठ रहा है मन में,
क्या वो चार दीवारों में कैद हो जाएगी
हर पल तड़पती सुलगती दिल को
सोचती कैसे वो समझाएंगी।
शरीर पर पड़े घाव तो फिर भी मिट जाएंगे
पर जो आत्म पर लगे हैं उसे कैसे मिटाएगी
मर्दों से भरी इस महफिल में,
क्या खुद को महफूज रख पाएगी ?