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Dr Priyank Prakhar

Abstract

4.5  

Dr Priyank Prakhar

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ख़ामोश आग

ख़ामोश आग

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खामोशी पसरी है दरबदर इस कदर, के उनके हालात बोलते हैं,

वो नहीं बोलते कुछ भी, पर हालात बन सवालात मुंह खोलते हैं।


लबों पे भी नहीं होती है जुंबिश, पर उनके ख्यालात बोलते हैं,

कभी बन अल्फ़ाज़ कभी तरन्नुम, जमाने की जुबां पे डोलते हैं।


ना कर बंद कानों को, कोई आवाज तुम तक नहीं पहुंच पाती है,

खोल आंखों को कम-से-कम, हमारी हालत तुझे दिख जाती है।


खामोशी ना जाने कब जमाने में बेआवाज हथियार बन जाती है,

हों कान बहरे कितने भी सब के, हर सन्नाटे को ये चीर जाती है।


जुंबिश भी ना हो लबों पे, पर हर एक बात साफ समझ आती है,

सरकारें क्या हैं दुनियावी, खामोशी से कायनात भी घबराती है।


गर पसरी कायनात में खामोशी, खुशियां रुखसत हो जाती हैं,

खुशियां गर रुसवा हो रुखसत, तो कायनात बेवा हो जाती है।


इस खामोशी पर सरकार, हम कुछ तो आपसे जवाब चाहते हैं,

हम तो बस आपसे अपनी, खामोशी का पूरा हिसाब चाहते हैं।


जरा गौर करो इन शोलों पे, एक दिन इन्हें आग में बदलना है,

शोलों पे चलना पसंद है इन्हें, पर तुमको ही उसमें जलना है।



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