कचनार के नीचे
कचनार के नीचे


हम तुझे फिर वहीं मिलेंगे,
जहाँ वो दो रास्ते मिलेंगे।
जिस जगह वो कचनार के,
पेड़ हुआ करते थे।
और उन सितारों से,
भरी रात में हम,
बात किया करते थे।
जो सुनी शामें कहीं,
एक दूसरे को पढ़ते,
गुजारी जाती थी,
तुझे मेरे पैरों के निशांं,
अब वहीं दिखेंगे।
जहाँ वो बादल,
किसी कलाकारी,
की तरह,
आसमान में,
आवारों की तरह,
फिरते थे।
जिनमें एक दूसरे का चेहरा,
तलाशा करते थे हम।
जिस जगह,
वो नीलकंठ,
अपने पंख फैलाया करता था,
और हम दुआओं में,
एक दूजे को मांगा करते थे।
जिस जगह उस,
ठंड के नीले चाँद को देख,
कुछ हसीं सपने बुनते थे,
ये कविता वहीं पड़ी मिलेगी,
कचनार के नीचे।