कैसे हूँ मैं
कैसे हूँ मैं
कैसे हूँ मैं खुद जानता नहीं
कभी झूठ बोला सच के तरह
कभी सच को दबा रखा दिल में
बोला भी तो आधी सच के तरह।।
एतराज़ बहुत आज नाराज़ है
कभी उबलते रगों की लहू में
कहते कहते जो रुके रह गए
सूखे हलक में थके साँस की तरह।।
बदहवास भागती कोशिशें कभी
मंजिल की पहली छोर तक
मगर लौटा देती क़िस्मत खोटी
ताला जड़ा सा किवाड़ के तरह।।
फिर भी निकलूंगा एक तलाश में
लौटने का आदत पड़ तो चुका
ज़िद्द ज़िंदा जुनून अडिग है मेरी
खंडहर में खड़ा दीवार के तरह।।
ढलता सूरज तो ताकता है नहीं
वारुणी की छोर और दूर कितना
ढलती किरणें चमकती जैसे
जूझती दिया बुझती लौ की तरह।।
देर हो सकती मगर होगा दुरुस्त
इस उम्मीद कायम कर बामन
निशाना साधो अचूक, भेदो लक्ष
आँख मछली की, तीर पार्थ की तरह।।