कैकयी की व्यथा
कैकयी की व्यथा
कर रही हूँ गुहार।
सुनो मेरे पुत्र राम !
मैंने क्या ग़लत किया ?
जो तूने लिखा था।
मेरे भाग्य का हिस्सा !
मैंने वही तो किया,
फिर भी मुझको
ताने देती दुनिया
क्या है मेरा गुनाह ?
बताओ सारे जगत को,
नहीं भेजती तुमको
अगर मैं वनवास
क्या हो सकता था
रावण का सर्वनाश ?
क्या कहला पाते
तुम मर्यादा पुरुषोत्तम ?
ये जीवन तूने दिया।
इस मिट्टी के शरीर में
प्राण भी तेरे बसे।
फिर कोई सही कैसे ?
फिर कोई गलत कैसे ?
सब तेरी ही माया है।
जग तुझमे समाया है।
मुझसे क्या भूल हुई ?
या कोई अपराध हुआ ?
मेरे सर पर सदियों से
जो ये पाप का भार है।
उसे मिटाओ मेरे राम !
कह दो आज जगत से,
मुझे न करे यूँ बदनाम
पुत्र मोह में अकारण ही
मुझसे ये कृत्य हुआ।
माँ की ममता समझो,
नहीं तो फिर कभी कोई
कैकयी जन्म नहीं लेगी
और न फिर रामायण बनेगी।