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Kavi kapil khandelwal 'Kalash'

Tragedy

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Kavi kapil khandelwal 'Kalash'

Tragedy

कैदी

कैदी

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एक जिन्दगी

चारदीवारी में बंद

सालों से कभी

जिसने


गुनगुनी गुलाबी सर्द धूप

टिप टिप बारिश की बूँदे

उड़ते हुए पंछी

लहराती-इतराती -मचलती

सुनहरी धरा


होली के चटक रंग

दीपों से सजा घर-आँगन

नन्हे बच्चे की किलकारी

शादी की शहनाई

नहीं देखी-सुनी।


देखा है तो

सिर्फ और सिर्फ

लोहे की मोटी - मोटी

सलाखें

पत्थर की सख्त दीवारें

और वही एल्युमीनियम की

प्लेट और कटोरी।


बस उसे इन्तजार है

आजाद होने का

जिससे

वह दूर क्षितिज में

उड़ते हुए पंछी

की तरह खुले गगन में

फ़ड़ फड़ा और उड़ सके।


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