कैद सपनों का पिंजरा
कैद सपनों का पिंजरा
अगर होती मुझे उड़ने की इजाजत
तब बस दूर कहीं होता मेरा सवेरा
दिखाती बताती सबको मैं कहानी
होती है मेरी आज भी यही चाहत।
ढाल बनाकर किसी को मैं अपना
पतंग सी उड़ती मैं जाऊंं ऊंचाई पर
देखेंं थे और भी परिंदे वहां पर मैंने
जो कर रहे साकार खुद का सपना।
पर ना जानेे क्यों हमेशा टूट जाती थी
सहारा न मिलता ना कोई मिलता साया
सामने से ही घात लगे मन को मेरे और
फिर सपनों की दुनिया रुठ जाती थी।
क्यों रखा है आज यूं जकड़ के मुझको
कोई तो खोलो अब इस पिंजरे को मेरे
ख्वाबोंं का जाल भी फंस गया है इसमें
फिर आकर दिखाऊंं मैं बाहर ये तुमको।