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काश

काश

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काश ये वक़्त थोड़ा पीछे हो जाए,

मैं सतरह का हो जाऊँ वो सोलह की हो जाए।


मैं डर-डर के ताकूँ उसकी मुँडेर फिर,

वो पतंग उठाने के बहाने छत पर चली आए।


वो अंकल की नजरों से छुप कर मिले फिर,

वो रोज़ नए दुप्पटे में फूल सी खिले फिर।


मैं कढ़े हुए बालों को यूँ कुछ बिखेर लूँ,

वो उंगलियों से अपनी मेरे बाल सहलाये।


काश ये वक़्त थोड़ा पीछे हो जाए,

मैं सतरह का हो जाऊँ वो सोलह की हो जाए।


मैं फिर से करूँ दोस्तों में उसकी तारीफें,

वो सहेलियों से मुझपे भद्दे तंज कसवाए।


सवारूँ में खुद को रोज़ नए लिबास में,

वो सँवर कर निकले रोज़ नए लिहाफ़ में।


मैं मुस्कुराऊँ देख के अपना ही चेहरा,

आईने पे हर दफा मेरे कदम ठहर जाए।


मैं उसके बदन को निहारूँ वहशियाना,

वो निगाहों से घूरे, और मुझे शर्मिंदा कर जाए।


काश ये वक़्त थोड़ा पीछे हो जाए,

मैं सतरह का हो जाऊँ वो सोलह की हो जाए।


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