ज़िन्दगी
ज़िन्दगी
ऐ ज़िन्दगी तू पल दो पल का साथी तो नहीं
जो चाहे जब ढल जाएगी
ये मौत कभी कभी घबराती तो नहीं
जो दो पल ठहर टल जाएगी
क्या ज़िंदगी तू सरिता बहती है जिसमें धारा
दु:ख यहां सुख यहां क्या तेरा यहीं किनारा
सोचा था ठहर जाऊं दो पल यहीं पर रूककर
कर लूं तुझे प्रणाम दो पल यहीं पर झूक कर
पर ज़िन्दगी तुझे मैं अब भी समझ न पाया
हर पल चला तेरे संग क्यों तुने मुझे रूलाया
जीवन है संग्राम कुछ लोगों से मैंने सूना था
खाई ठोकरें दर दर की मैंने नसीबों को बुना था
ऐ ज़िन्दगी तू नाटक और रंग मंच ये संसार है
कर लेता जो श्रेष्ठ अभिनय बस उसकी जय जयकार है
न कोई यहां किसी को अब कभी स्वीकार है
मुझे तो ज़िन्दगी से आज भी वही प्यार है।