काल
काल
हाँ मैंने तुम्हें कई बार देखा है,
ममता की गोद से शिशु छीनने वाले,
शिशु प्राण को भी लीलने वाले।
तुम हृदय को चीरने वाली चित्कार हो,
काल तुम बस काल हो।
तुम नहीं किसी भी कर्ण को प्रिय,
इक ऐसी पदचाप हो।
तुम निर्दयी निष्ठुर बस प्राणों के भिक्षुक।
पर्ण प्राण को हरने वाले
अकाल ही जीवन को ग्रसने वाले
काल बस तुम काल हो।
पल-पल भूमि को कुरेदती
ममता के आँचल को भींचती समेटती
प्रतिपल प्रश्नों को है खुरेंचती।
वह आद्र नयन माता
न जाने कैसे अपने
प्राणों को है समेटती।
किन्तु तुम तो हो हृदय्हीन चक्षुहीन
मूक बधीर तुम भावहीन
करते हो जीवन छिन्न-भिन्न
काल बस तुम काल हो।।
