संतुलन- जीने की एक कला
संतुलन- जीने की एक कला
पूर्ण न होता जीवन में कोई, कमी मिलेगी हर कहीं
छोट-बड़ई की बात नहीं ये, पूर्ण न होती सृष्टि कभी।।
मीठी वाणी की मल्लिका है कोयल, पहचान कोंवे-कोयल आसान नहीं
सुंदर होता मोर तो यारों, देख पैरो को होता दुखी वही।।
शक्ति मिली तो सहनशीलता छीन ली, देरी जरा भी बर्दास्त नहीं
अहं घमंड में भरे है रहते, बड़े-बूढ़ों का सम्मान नहीं कहीं।।
संतोष चाहिए तो धन को छोड़ दो, गर्व से न होता मन शांत कभी
मोह छोड़ा तो संत बनोगे, न दुख-दर्द से फिर वास्ता कभी।।
ज्ञान दिया तो आयू छीन ली, पास बैठने को कोई तैयार नहीं
आस लगाए बाट देखते, वृद्ध पानी-पानी को मोहताज सभी।।