प्रकृती
प्रकृती
अभिमान का तूने साथ न छोड़ा, इस कारज विपदा आई है।
जीवन की इस अमूल्य घड़ी में, हर घड़ी मातम छाई है।।
आत्म स्वार्थी बन अपना ही सोचा," प्रकृति, ही बनी दुखदाई है।
सुखमय जीवन नर्क कर डाला, फिर पीछे पछताई है।।
मनुष्य ही मनुष्य के क्लेश का कारण, ऐसी प्रवृत्ति बन आई है।
व्यवहार, आचरण भी धूमिल पड़ता, ऐसी मरूभूमि बनाई है।।
समझ बैठा अपने को ही सब कुछ, अपनी ही धाक जमाई है।।
अपनी ही मनमानी के खातिर,पशुवत जीवन बिताई है।।
प्रकृति ने तुझको बहुत कुछ समझाया, फिर भी समझ न आई है।
" नीरज, करता करबद्ध प्रार्थना, प्रभु स्मरण ही सुखदाई है।।