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Preshit Gajbhiye

Abstract

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Preshit Gajbhiye

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काग़ज़ का घर ...

काग़ज़ का घर ...

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मै हूं या कोई और है इसका जिम्मेदार ,

किसने मुझे यहां लाकर छोड़ रखा है ..


हल्की सी हवा आते ही बिखर जायेगा ,

ये जानकर भी मैने पैसों का घर जोड़ रखा है ..


हवा की मर्जी है अब किस दिशा को बहे ,

अपनी तरफ से मैने 

पंखे का मुंह खिड़की की ओर मोड़ रखा है ..


खिड़कियां दरवाज़े इसलिए भी खुले रखे है मैने ,

कोई झांके अंदर तो उसे भी पता चले ,

काग़ज़ का घर संभालते संभालते

मैने अपना ही परिवार तोड़ रखा है।


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