काबुल में झुलसती इंसानियत
काबुल में झुलसती इंसानियत
एक गतिशील राष्ट्र अचानक खामोश हो गया,
संपूर्ण काबुल बेड़ियों में जकड़ दिया गया।।
ढलते सूरज के साथ सत्ता और शासन भी ढल गया,
अफ़गान की हर दीवार पर तालिबान लिख दिया गया,
इंसानियत का गला घोटा गया,
जलती आग में इंसान झुलसता गया,
चारो ओर त्राहि त्राहि बिखरी है,
कही चीख है दर्द से भरी कही बिन मां बाप की मासूम बिलखती है,।।
एक गतिशील राष्ट्र अचानक खामोश हो गया,
संपूर्ण काबुल बेड़ियों में जकड़ दिया गया,।।
जिसने करा विरोध उसकी गर्दन काट दी गई,
महिलाओं की इज़्ज़त पैरों तले रौंदी गई,
रंग दिए सफेद शहर में लगे सारे इश्तिहार,
हर नुक्कड़ चौराहे पर हो रहा है नर संहार,
सूनी काली गलियों में तालिबानी जुलूस निकलते है,
अपनी दहशत को बरक़रार रखने के लिए बंदूक और हथियारों की नुमाइश करते है,।।
एक गतिशील राष्ट्र अचानक खामोश हो गया,
संपूर्ण काबुल बेड़ियों में जकड़ दिया गया,।।
इंसान की हर आज़ादी पर पाबंदी लगा दी गई,
हवा और पानी भी तालिबानियों ने हथिया ली,
नियम कायदे की किताब का पन्ना पन्ना फाड़ा गया,
अपने तौर तरीको को काबुल पर थोपा गया,
धर्म – धर्म करते करते इंसानियत का धर्म वो भूल गए,
शक्ति प्रदर्शन के नाम पर इंसानियत वो दफ़न करते गए,।।
एक गतिशील राष्ट्र अचानक खामोश हो गया,
संपूर्ण काबुल बेड़ियों में जकड़ दिया गया,।।
आवाज़ उठाने वाली हर ज़ुबान पर डर और दहशत का ताला लगा दिया गया,
हस्ते खिलखलाते परिवारों को चार दीवारों में कैद कर दिया गया,
अपने ही मुल्क में अफ़गानी सल्तनत कैदी हैं
ये कैसी तालिबान की बे बुनियादी नीति है,
एक सुनहरा सवेरा काबुल में जल्दी आए,
काश मुर्दा हो चुकी इंसानियत में फिर सांसे आ जाएं।।